Maharashtra VS Karnataka Border Issue: बेलगाम पर राजनीति से बचें
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-आशीष वशिष्ठ
कर्नाटक और महाराष्ट्र राज्यों के मध्य बेलागवी को लेकर दशकों पुराना विवाद तथा महाराष्ट्र जिसे बेलगाम जिला कहता है फिर से सुर्खियों में बना हुआ है. बेलगाम या बेलागवी वर्तमान में कर्नाटक राज्य का हिस्सा है लेकिन महाराष्ट्र द्वारा इस पर अपना दावा किया जाता है. किसी विवाद या समस्या को प्रायः इसलिए टाला जाता है कि फैसला करने पर एक पक्ष नाराज हो जाएगा. लेकिन कालांतर में वह और जटिल हो जाता है तब उसका हल तलाशना बेहद कठिन होता है. देश में करीब दस राज्य ऐसे हैं, जिनमें सीमा को लेकर विवाद जारी है. इनमें पूर्वोत्तर राज्यों में सर्वाधिक फसाद है. ताजा मामला बेलगाम का है.
1956 में भाषावार प्रान्तों की रचना के समय बेलगाम नामक मराठी भाषी जिला कर्नाटक में मिला दिया गया था. इसे लेकर शुरू से दोनों के बीच झगड़ा चला आ रहा है. हिंसक आन्दोलन और संघर्ष भी देखने मिले. राजनीतिक स्तर पर विवाद सुलझाने के प्रयास अनेक मर्तबा उस समय भी हुए जब केंद्र के साथ ही दोनों राज्यों में एक ही दल सता में था और केन्द्रीय नेतृत्व भी काफी ताकतवर था. लेकिन इच्छाशक्ति और दृढ़ता की कमी के कारण मामला अनसुलझा रह गया. फिलहाल प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय के अधीन है. उसका जो भी फैसला आएगा वह दोनों राज्यों पर बंधनकारी होगा.
ऐसे में अहम सवाल यह है कि जो मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है, वो एकाएक फिर से चर्चा में क्यों आया है? सवाल यह भी है कि इस मामले को लेकर दोनों राज्यों की सरकारें जमकर राजनीति क्यों कर रही हैं? इसका मुख्य कारण निकट भविष्य में कर्नाटक विधानसभा के चुनाव हैं. कर्नाटक विधानसभा में एक प्रस्ताव गत सप्ताह पारित किया गया जिसके अनुसार महाराष्ट्र को बेलगाम की थोड़ी सी भी जमीन नहीं दी जाएगी. जवाब में महाराष्ट्र विधानसभा और विधानपरिषद ने बेलगाम के साथ ही उन 800 ग्रामों पर अपना अधिकार जताने विषयक प्रस्ताव स्वीकृत कर दिया जहां मराठी भाषी लोगों का बाहुल्य है.
पूरी मामले में अहम तथ्य यह है कि केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने दोनों को इस बात के लिए राजी कर लिया था कि वे सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा करेंगे किन्तु चुनाव करीब होने के कारण कर्नाटक सरकार ने जनता की नाराजगी से बचने विधानसभा में प्रस्ताव पारित करवा लिया. दूसरी तरफ महाराष्ट्र में शिवसेना इस मुद्दे पर राज्य सरकार को घेरने में लग गयी. संयोगवश कर्नाटक और महाराष्ट्र दोनों राज्यों में भाजपा सत्तासीन है और केन्द्र में भी उसकी सरकार है. दोनों पक्ष इस मामले में राजनीतिक बयानबाजी और पैंतरेबाजी से चूक नहीं रहे हैं.
1947 से पहले महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्य अलग नहीं थे. तब बॉम्बे प्रेसीडेंसी और मैसूर स्टेट हुआ करते थे. आज के कर्नाटक के कई इलाके भी तब बॉम्बे प्रेसीडेंसी का हिस्सा थे. आज के बीजापुर, बेलगावी (पुराना नाम बेलगाम), धारवाड़ और उत्तर कन्नड जिले बॉम्बे प्रेसीडेंसी का हिस्सा थे. बॉम्बे प्रेसीडेंसी में मराठी, गुजराती और कन्नड भाषाएं बोलने वाले लोग रहा करते थे. भारत की आजादी के बाद राज्यों का बंटवारा शुरू हुआ. बेलगाम में मराठी बोलने वालों की संख्या कन्नड बोलने वालों की संख्या से ज्यादा थी. बेलगाम नगरीय निकाय ने 1948 में मांग की कि इसे मराठी बहुल होने के चलते प्रस्तावित महाराष्ट्र राज्य का हिस्सा बनाया जाए.
1956 में जब इन दो राज्यों का पुनर्गठन किया गया था, तो कुछ जिले कर्नाटक के अंतर्गत आए. इसके पहले यह क्षेत्र बॉम्बे जो अब महाराष्ट्र है, उसके अंतर्गत आते थे. जब यह मामला बढ़ गया तो केंद्र सरकार ने इस मामले को सुल्जहने के लिए सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश मेहर चंद महाजन ने एक आयोग का गठन किया. यह मामला अभी तक सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और इसे लेकर इन दिनों विवाद और भी जयादा बढ़ गया है.
भाषावार प्रान्तों की रचना करते समय बेलगाम के साथ ही कुछ मराठी भाषी इलाके कर्नाटक में क्यों और कैसे चले गए ये वाकई विश्लेषण का विषय है. लेकिन ऐसा और भी राज्यों में हुआ जिनकी सीमा वाले जिलों में मिश्रित आबादी रहती है. उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश के अनेक इलाके ऐसे हैं जहां महाराष्ट्र की झलक मिलती है. हालांकि वे मराठीभाषी नहीं हैं. इसी तरह मालवा और मध्यभारत के अनेक जिलों में क्रमशरू गुजरात और राजस्थान का प्रभाव साफ झलकता है. लगभग सात दशक में बेलगाम की कम से कम दो पीढिया तो बदल ही गईं हैं. दरअसल मुद्दा ये बनाया जाता है कि दूसरी भाषा बोलने वालों के साथ अन्याय होता है जो कुछ हद तक ये सही भी है किन्तु इस तरह के विवाद राजनीतिक कारणों से ही उत्पन्न किये जाते हैं जिनका उद्देश्य अपनी रोटी सेकना ही है.
देश की राजधानी दिल्ली में सुदूर दक्षिण से नौकरी करने आये लाखों लोग वहीं के होकर रह गए जिन्हें लेकर कोई विवाद सामने नहीं आया. एक समय था जब शिवसेना उत्तर भारतीयों के विरुद्ध बेहद आक्रामक रहती थी. छठ पूजा तक का विरोध किया जाता था. लेकिन अब उसे भी समझ में आ चुका है कि उत्तर प्रदेश और बिहार से आये लोगों के साथ आत्मीयता कायम करना ही बुद्धिमत्ता है. महाराष्ट्र और कर्नाटक दोनों राज्यों के नेताओं को ये बात समझनी चाहिए कि जब मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है तब बेकार की रस्साकशी से कुछ हासिल होने वाला नहीं है. अभी तक इस विवाद में अनेक लोग हिंसा का शिकार हो चुके हैं वहीं करोड़ों की संपत्ति नष्ट की जा चुकी है. समय-समय पर हुए आंदोलनों में काम धंधे बंद रहने से हुआ नुकसान अलग है. ये सब अनिर्णय की प्रवृत्ति से बंधे रहने का ही दुष्परिणाम है. अव्वल तो भाषावार प्रान्तों की रचना ही ऐतिहासिक भूल थी जिसने देश को बेकार के विवाद में फंसा दिया. तमिलनाडु में भाषा के नाम पर ही अलगाववाद को बढ़ावा मिला. हाल ही में पूर्व केन्द्रीय मंत्री और द्रमुक नेता डी. राजा ने यहां तक धमकी दे डाली कि हिंदी लादने की कोशिश होने पर तमिलनाडु देश से अलग हो सकता है.
आजादी के 75 साल बाद देश जब विश्वशक्ति बनने की राह पर तेजी से कदम बढ़ा रहा हो तब दो राज्यों के बीच भाषा के नाम पर कुछ इलाकों को लेकर शत्रुता का भाव बना रहे इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी? बेलगाम को लेकर लड़ रहे दोनों राज्यों में एक ही दल के आधिपत्य वाली सरकार होने के बाद भी इस तरह की बचकानी राजनीति से क्षणिक राजनीतिक स्वार्थ भले ही सिद्ध हो जाएं लेकिन देश कमजोर होता है. इसी तरह का विवाद चंडीगढ़ को लेकर है. पंजाब को विभाजित कर हरियाणा और हिमाचल प्रदेश बने तब चंडीगढ़ को दोनों की राजधानी बनाकर केंद्र शासित बना दिया गया. दशकों बाद भी वे इसके लिए लडने मरने तैयार रहते हैं. जबकि इतने लम्बे समय में वे चाहते तो चंडीगढ़ से बेहतर राजधानी बना सकते थे. उल्लेखनीय है आंध्र प्रदेश से तेलंगाना को अलग करते समय ही तय कर लिया गया कि हैदराबाद निश्चित समय तक दोनों की राजधानी रहेगी. आंध्र प्रदेश अमरावती नामक अपनी राजधानी विकसित कर रहा है.
राज्यों में विवाद चाहे सीमा संबंधी हो, नदियों के पानी के बंटवारे को लेकर या किसी दूसरी तरह का हो, इनका निराकरण सर्वमान्य कानूनी तरीके से ही किया जाना चाहिए. ऐसे विवादों पर सहमति तभी बनेगी जब राजनीतिक चश्मे की बजाय इन्हें देशहित के नजरिए से देखा जाएगा. बेलगाम को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने तक महाराष्ट्र और कर्नाटक दोनों को संयम रखना चाहिए. प्रयास इस बात के होने चाहिए कि दो राज्यों के सीमा विवाद का असर देश की अखण्डता पर नहीं पड़ना चाहिए.
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