स्थापना दिवस विशेष: 44 वेें वर्ष में भारतीय बस्ती

स्थापना दिवस विशेष: 44 वेें वर्ष में भारतीय बस्ती
(भारतीय बस्ती के संयुक्त संपादक प्रदीप चंद्र पांडेय/ साल 2021 के स्थापना दिवस की फाइल फोटो))

बस्ती मण्डल मुख्यालय से प्रकाशित दैनिक भारतीय बस्ती ने अपने प्रकाशन यात्रा के 43 वर्ष पूर्ण कर लिये. 44 वें वर्ष में दैनिक भारतीय बस्ती ने जहां मुद्रित रूप में पाठकोें का भरोसा जीता है वहीं भारतीय बस्ती डाट काम, भारतीय बस्ती यू ट्यूब पर पाठकों, श्रोताओं, दर्शकों का जो अपार स्नेह मिल रहा है वह हमारी वास्तविक ताकत है. भारतीय बस्ती के संस्थापक श्री दिनेश चन्द्र पाण्डेय ने 43 वर्ष पूर्व भारतीय बस्ती का जो वैचारिक बीजारोपण किया वह अब सशक्त वृक्ष का रूप ले चुका है. उनके कुशल मार्ग दर्शन में मुद्रित समाचार पत्र के साथ ही सोशल मीडिया पर भारतीय बस्ती की पकड़ मजबूत हुई है.

जब-जब कठिन समय आये और कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था कि अब भारतीय बस्ती का प्रकाशन कैसे जारी रखा जाय श्री दिनेश चन्द्र पाण्डेय ने सदैव हौसला बढाया. यह समय तकनीकों के प्रयोग से निरन्तर संवाद बनाये रखने का है. आज भारतीय बस्ती के बस्ती और अयोध्या संस्करण को निरन्तर निखारने में युवा पीढी लगी हुई है. उनके परिश्रम ने यह आश्वस्त कर दिया है कि माध्यम जगत के विविध रूपों में भारतीय बस्ती अति शीघ्र और नये आयाम विकसित करेगा. संसार में प्रत्येक युग का अपना संकट होता ही है किन्तु सफल वे होते हैं जो चुनौतियों को स्वीकार कर आगे बढते हैं. भारतीय बस्ती की जन पक्षधरता हमारी पूंजी है. हमने न किसी को डराया न डरे. पाठकों, श्रोताओें, दर्शकांे की क्रिया, प्रतिक्रिया हमारी वास्तविक पूंजी है. लोकतंत्र में सरकारें आती जाती रहती हैं. हर समय के अपने भिन्न-भिन्न संकट है. हम आश्वस्त करते हैं कि 44 वें वर्ष में भारतीय बस्ती के बस्ती और 17 वें वर्ष में पहुंच चुके अयोध्या संस्करण को और अधिक निखारा जायेगा, समय, स्थान, स्थिति के अनुरूप यह यात्रा तभी अविरल जारी रह पायेगी जब पाठकों,  श्रोताओें, दर्शकों का भरोसा हम पर बना रहे. आज जब समाचार पत्रों की विश्वसनीयता पर लगातार सवाल किये जा रहे हैं हम कह सकते हैं कि जो भी संसाधन हमारे पास उपलब्ध है उसका श्रेष्ठतम देने का प्रयास किया जाता है. 

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पत्रकारिता का प्रारंभ भारत में राष्ट्रीय भावना के उत्कर्ष काल में हुआ और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में इसका महत्वपूर्ण स्थान रहा है. हमारी पत्रकारिता  कई ऊंचे-नीचे और तिरछे मोड़ से गुजरती हुई गतिशील है. इस दौरान पत्रकारिता में निखार आया, साथ ही इसे कई प्रकार की        विकृतियों और धुंधलेपन से भी ग्रस्त होना पड़ा है. भारतीय पत्रकारिता के संदर्भ में यह विदित तथ्य है कि पत्र-पत्रिकाओं के प्रचार-प्रसार ने ही लोगों में सामाजिक तथा राष्ट्रीय चेतना की ज्योति जगाई है.  बदलते समय के साथ अब समाचार पत्रों में काफी बदलाव आता जा रहा है. अब पहले जैसी निष्ठा और समर्पण भावना नहीं रही, साथ ही पत्रकारिता की मर्यादा की श्रेष्ठ परम्पराओं का पालन नहीं हो रहा है. ऐसी स्थिति के कई कारण हैं, जिनमें सब से मुख्य है कई पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन पर बड़े व्यावसायिक घरानों का प्रभुत्व. हालांकि पहले भी धनी परिवार प्रकाशन व्यवस्था में योगदान किया करते थे किन्तु संपादक तथा संपादकीय क्षेत्र उनके प्रभाव से अलग रहा करता था. तुलनात्मक रूप में अब भी हिंदी पत्रकारिता में स्वतंत्र विचारधारा की कमी तथा पूर्वाग्रहों की अधिकता देखी जा सकती है. विशाल प्रतिष्ठानों से लेकर आंचलिक अखबारों तक में ऐसी घोषणा रहती है कि स्वतंत्र विचारधारा का निर्भीक पत्र किन्तु वास्तविक स्थिति इससे अलग हैं. 

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हिन्दी पत्रकारिता में विकृति तब से शुरू हुई जब से    विचारधाराओं के नाम पर संपादकीय झुकाव किसी जुट मिल मालिक, किसी चीनी मिल मालिक, किसी कार निर्माता, किसी भवन निर्माता के व्यावसायिक हितों का पर्याय बन गए और भिन्न मत वालों का बात दबाना, बिगाड़ना कुछ का संपादकीय कर्म बन गया. यह बात भारत में केवल हिंदी समाचार पत्रों पर नहीं बल्कि अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं पर भी लागू होती है.

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वर्तमान परिस्थितियों में आवश्यकता इस बात की है कि अपनी मर्यादा और परम्परा का ध्यान रखते हुए पाठकों की अभिरूचि के अनुसार सामग्री प्रस्तुत किया जाय. यह मानना होगा कि देश और विदेश में हिंदी पत्रकारिता तभी प्रखर, प्रबल तथा प्रभावी होगी, जब उनकी संपादकीय वैचारिक निष्ठाएं या विचारधारा जनता के हितों के प्रति प्रतिबद्ध होगी. 

 विकासशील पत्रकारिता में समय-समय पर कई प्रकार की बाधा-विफलताएं भी आती रही है. वर्तमान में यह देखा जा रहा है कि खोजी पत्रकारिता के नाम पर सनसनीखेज घटनाओं, वासना कांडों और कुत्सित कार्यों को प्रमुखता देने की प्रवृत्ति चल पड़ी है. ऐसी घटनाओं को प्रमुखता देकर छापना, सामाजिक हित में उचित नहीं है. आज पत्रकारिता की साख पर संकट के बादल भले मड़रा रहें हों किन्तु निराश होने की जगह हमें नये रास्ते खोजने होंगे.

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